अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥

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अयि गिरिनन्दिनि: महिषासुरमर्दिनि स्तोत्र का अर्थ

परिचय

यह स्तोत्र देवी दुर्गा की स्तुति में लिखा गया है और इसे “महिषासुरमर्दिनि स्तोत्र” कहा जाता है। यह देवी दुर्गा के महिषासुर का वध करने की वीरता और उनके विभिन्न रूपों का वर्णन करता है। यह स्तोत्र श्री आदिशंकराचार्य द्वारा रचित माना जाता है। इसमें देवी की महिमा, शक्ति और करुणा का सुंदर वर्णन है। आइए प्रत्येक श्लोक का हिन्दी में अर्थ समझते हैं:

श्लोक 1:

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
हे पर्वत राजकुमारी (पार्वती), जो इस संसार को आनंदित करती हो, विश्व का मनोरंजन करने वाली हो और भगवान नंदी द्वारा पूजित हो!

गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते
तुम्हारा निवास विंध्याचल पर्वत की ऊँचाइयों पर है, तुम भगवान विष्णु के साथ रमण करने वाली हो और विजेता (इंद्र) द्वारा पूजित हो!

भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
हे भगवती, जो भगवान शंकर की पत्नी हो, जो विशाल परिवार की संरक्षिका हो और जो महान कार्य करती हो!

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
जय हो, जय हो, हे महिषासुर का वध करने वाली, सुंदर जटाओं वाली और पर्वतराज हिमालय की पुत्री!

श्लोक 2:

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
हे देवी, तुम देवताओं पर कृपा की वर्षा करने वाली हो, दुर्धर्ष (अत्याचारी) का दमन करने वाली हो और क्रोधित चेहरों को शांत करने वाली हो!

त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
तुम तीनों लोकों की पोषण करने वाली हो, भगवान शिव को प्रसन्न करने वाली हो और पापों का नाश करने वाली हो!

दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
तुम दानवों के क्रोध को समाप्त करने वाली हो, दिति के पुत्रों (दानवों) के क्रोध का नाश करने वाली हो और अत्याचारियों के गर्व को मिटाने वाली हो!

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जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
जय हो, जय हो, हे महिषासुर का वध करने वाली, सुंदर जटाओं वाली और पर्वतराज हिमालय की पुत्री!

श्लोक 3:

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
हे जगदम्बा, मेरे माता, जो कदम्ब वन में रहने वाली हो और हँसी में मग्न रहती हो!

शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते
तुम पर्वतों के मुकुट, ऊँचे हिमालय के शिखरों पर निवास करती हो!

मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
तुम मधुर हो, मधु और कैटभ का नाश करने वाली हो और रासलीला में रत हो!

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
जय हो, जय हो, हे महिषासुर का वध करने वाली, सुंदर जटाओं वाली और पर्वतराज हिमालय की पुत्री!

श्लोक 4:

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्ड गजाधिपते
हे देवी, तुमने शतखंड (सैकड़ों टुकड़े) में गज (हाथी) के सिर को काटा और उसका मस्तक धरती पर गिरा दिया!

रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते
तुम्हारे पराक्रम से शत्रु के हाथी के गण्ड (गाल) को फाड़ दिया गया और मृगों के स्वामी (शेर) के रूप में तुमने विजय प्राप्त की!

निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
तुमने अपने बलशाली हाथों से शत्रुओं के सिर काट दिए और सेना के प्रमुखों को पराजित कर दिया!

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
जय हो, जय हो, हे महिषासुर का वध करने वाली, सुंदर जटाओं वाली और पर्वतराज हिमालय की पुत्री!

श्लोक 5:

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
हे देवी, तुमने युद्ध में दुर्मद शत्रुओं का वध किया और दिव्य शक्तियों को धारण किया!

चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते
तुम चतुराई और विचारशीलता से युक्त हो, और भगवान शिव की दूत बनकर प्रमथों (गणों) की प्रमुख हो!

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दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
तुमने दुष्ट, कुप्रवृत्ति और गलत सोच रखने वाले दानवों का संहार किया!

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
जय हो, जय हो, हे महिषासुर का वध करने वाली, सुंदर जटाओं वाली और पर्वतराज हिमालय की पुत्री!


निष्कर्ष

यह स्तोत्र देवी दुर्गा की महिमा और उनके विभिन्न रूपों का वर्णन करता है। इसे गाने से मन में शक्ति और साहस का संचार होता है। देवी महिषासुरमर्दिनि का यह स्तोत्र हमारी कष्टों से मुक्ति दिलाने और हमें दुर्गुणों से मुक्त करने का मार्ग दिखाता है।

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